
रिपोर्ट: के एन सहानी/संजीव कुमार तिवारी कुशीनगर
अगर सरकार प्राथमिक विद्यालयों को बंद करती है तो इसकी सबसे बड़ी कीमत कोई अमीर या अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ने वाला बच्चा नहीं चुकाएगा, बल्कि वह बच्चा चुकाएगा जो समाज की अंतिम पंक्ति में खड़ा होकर पहली बार स्कूल तक पहुंचा था। वही बच्चा जिसकी पीढ़ी में पहली बार किसी ने किताब को छुआ था। जो गरीबी और तमाम बाधाओं से लड़कर स्कूल पहुँचा था — लेकिन अब जब स्कूल ही बंद हो रहा है, तो उसका सपना अधूरा रह जाएगा।
शिक्षा किसी भी समाज के विकास की पहली और सबसे जरूरी सीढ़ी है। हमने जनप्रतिनिधियों को संसद और विधानसभा में इसलिए भेजा कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य और समान अवसर की गारंटी दें। मगर हुआ इसके ठीक उलट।
सरकारी स्कूलों को बंद करने की पटकथा वर्षों पहले ही लिखी जाने लगी थी। सरकार ने प्राइवेट स्कूलों को तेजी से मान्यता दी, लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती रोक दी गई। एक शिक्षक के भरोसे चार से पाँच कक्षाएं छोड़ दी गईं। विषय विशेषज्ञों की भारी कमी के बीच संविलियन विद्यालय प्राथमिक शिक्षकों के हवाले कर दिए गए।
स्थिति यह हुई कि गुणवत्ता की शिक्षा संभव नहीं रही। अभिभावक भी कहने लगे कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। बच्चों का नामांकन निजी विद्यालयों में होने लगा और सरकार का माइंडवॉशिंग अभियान सफल होता गया।
अब सरकार ने कहना शुरू कर दिया — “बच्चे कम हैं, स्कूल बंद कर दो।”
लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि बच्चे कम क्यों हुए?
जिन स्कूलों में शौचालय, पानी, बिजली, पुस्तकालय जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं, जहां पांच कक्षाओं के लिए सिर्फ दो कमरे हैं, वो भी बारिश में टपकते हैं, बच्चों के लिए डेस्क-बेंच नहीं हैं — वहां कोई माता-पिता अपने बच्चे को क्यों भेजेगा?
शिक्षकों को चुनावी ड्यूटी, BLO कार्य, जनगणना और अन्य गैर-शैक्षणिक कार्यों में झोंक दिया जाता है। कक्षा खाली रह जाती है। फिर रिपोर्ट बनाई जाती है कि नामांकन घट रहा है। नतीजा — स्कूल बंद।
यह कोई संयोग नहीं है, यह एक रणनीति है — शिक्षा को व्यापार बना देने की।
सरकारी स्कूलों को बदनाम कर निजीकरण को बढ़ावा देना ताकि गरीब, दलित, आदिवासी और मजदूर वर्ग के बच्चे शिक्षा से दूर हो जाएं। वे केवल मजदूरी करें, सवाल न पूछें। और शिक्षा केवल संपन्न वर्ग के लिए रह जाए।
यह स्थिति लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
अगर प्राथमिक विद्यालय बंद होते हैं तो—
- गरीब, दलित, आदिवासी, महिला और मजदूर वर्ग के बच्चे शिक्षा से बाहर होंगे।
- बाल श्रम और ड्रॉपआउट दर बढ़ेगी।
- सामाजिक असमानता और जातीय भेदभाव गहरे होंगे।
- संविधान के अनुच्छेद 21A का उल्लंघन होगा।
- और अंततः लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी।
समाधान क्या हो?
अब आवश्यकता है कि हर पंचायत में एक आदर्श मॉडल सरकारी विद्यालय स्थापित हो।
हर विषय के लिए योग्य शिक्षक हों।
बिजली, पानी, शौचालय, पुस्तकालय जैसी सुविधाएं हों।
शिक्षकों को केवल शिक्षा संबंधी कार्यों में ही लगाया जाए।
सरकारी स्कूलों को सुधारने के लिए जवाबदेही तय हो और पर्याप्त बजट मिले।
शिक्षा को व्यापार नहीं, हर बच्चे का संवैधानिक अधिकार माना जाए।
अब सवाल पूछने का वक्त है। चुप मत रहिए।
अगर आज आपने सरकारी विद्यालयों के पक्ष में आवाज़ नहीं उठाई,
तो कल आपके बच्चे का भविष्य भी संकट में पड़ सकता है।
सरकारी स्कूल केवल गरीब का सहारा नहीं,
बल्कि भारत के लोकतंत्र की नींव हैं।
जब अंतिम पंक्ति में खड़ा बच्चा भी स्कूल जाएगा,
तभी भारत सच्चे मायनों में लोकतंत्र बनेगा।