सामाजिक न्याय और सत्ता में भागीदारी पर बोले शिक्षक श्यामलाल निषाद
“अगर बहुजन समाज मनुवाद त्यागकर एकजुट हो जाए, तो देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री निषाद होगा।”
श्यामलाल निषाद के इस बयान ने भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय और सत्ता में भागीदारी को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। उन्होंने जातिगत संगठनों, मनुवादी व्यवस्था और बहुजन समाज की राजनीतिक शक्ति पर जोर देते हुए कहा कि यदि दलित, पिछड़े और आदिवासी एक हो जाएं, तो सत्ता उनके हाथ में आ सकती है।
श्यामलाल निषाद का बयान और उसकी पृष्ठभूमि
श्यामलाल निषाद ने अपने ट्वीट में लिखा:
“मनुवाद और अंबेडकरवाद एक-दूसरे के विरोधी हैं। ब्राह्मणों ने अपने फायदे के लिए जातिगत संगठनों को बढ़ावा दिया है, ताकि पिछड़े वर्गों की एकता टूट जाए। जातिगत संगठनों का समर्थन करने वाला व्यक्ति अंबेडकरवादी नहीं हो सकता।”
उनका यह बयान जातिगत राजनीति, सामाजिक न्याय और सत्ता में वंचित समुदायों की भागीदारी पर एक नई बहस छेड़ रहा है।
मनुवाद और अंबेडकरवाद: दो विरोधी विचारधाराएं
भारत की सामाजिक संरचना में मनुवाद एक परंपरागत जाति-आधारित व्यवस्था है, जिसे मनुस्मृति में वर्णित किया गया है। इसमें समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इस व्यवस्था ने हजारों वर्षों तक जातिगत भेदभाव को बढ़ावा दिया।
इसके विपरीत, अंबेडकरवाद डॉ. भीमराव अंबेडकर की विचारधारा है, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित है। अंबेडकरवाद का उद्देश्य जातिवाद को पूरी तरह खत्म करना और वंचित समुदायों को न्यायसंगत भागीदारी दिलाना है।
श्यामलाल निषाद के अनुसार, यदि बहुजन समाज मनुवादी सोच से मुक्त होकर एकजुट हो जाए, तो सत्ता में उनकी स्थायी भागीदारी संभव है।
जातिगत संगठनों की भूमिका और उनकी आलोचना
श्यामलाल निषाद ने जातिगत संगठनों को बढ़ावा देने वालों की आलोचना करते हुए कहा कि ये संगठन अंबेडकरवाद की मूल भावना के खिलाफ काम कर रहे हैं।
उनकी आपत्तियां:
✅ जातिगत संगठन समाज में जातिगत पहचान को मजबूत करते हैं, जिससे जातिवाद खत्म होने के बजाय और गहराता है।
✅ उच्च जातियां इन संगठनों का उपयोग पिछड़े वर्गों की एकता को कमजोर करने के लिए करती हैं।
✅ अंबेडकरवाद का लक्ष्य जाति का उन्मूलन था, लेकिन जातिगत संगठन इसे स्थायी बना रहे हैं।
हालांकि, कई सामाजिक कार्यकर्ता यह मानते हैं कि जातिगत संगठन दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए जरूरी हैं। डॉ. अंबेडकर ने भी दलितों और पिछड़े वर्गों के लिए अलग-अलग संगठनों की जरूरत को स्वीकार किया था, लेकिन उनका उद्देश्य जातिवाद को बनाए रखना नहीं, बल्कि इसे खत्म करना था।
बहुजन समाज और सत्ता में भागीदारी
श्यामलाल निषाद का मानना है कि यदि बहुजन समाज आंतरिक विभाजन को समाप्त कर दे और संगठित होकर राजनीति करे, तो कोई भी शक्ति उन्हें भारत का शासक बनने से नहीं रोक सकती।
राजनीतिक परिप्रेक्ष्य:
1️⃣ 1990 के दशक में बहुजन शक्ति का उदय:
✅ बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) जैसी पार्टियों ने दलितों और पिछड़ों को सत्ता में भागीदारी दिलाई।
✅ लेकिन जातिगत राजनीति ने बहुजन समाज के भीतर ही मतभेद बढ़ा दिए।
2️⃣ जातिगत राजनीति की चुनौतियां:
✅ सत्ता के लिए जातिगत गोलबंदी तो होती है, लेकिन व्यापक सामाजिक एकता नहीं बन पाती।
✅ उच्च जातियों के मुकाबले पिछड़े और दलित वर्गों के बीच ही संघर्ष बढ़ जाता है।
3️⃣ बहुजन एकता ही सत्ता की कुंजी:
✅ यदि दलित, पिछड़े और आदिवासी एकजुट होकर जाति-आधारित राजनीति से ऊपर उठ जाएं, तो वे सत्ता में स्थायी भागीदारी पा सकते हैं।
✅ सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता बढ़ाकर बहुजन समाज को अपने अधिकारों के लिए संगठित होना होगा।
क्या निषाद समुदाय से पीएम और सीएम बन सकता है?
श्यामलाल निषाद के बयान का यह हिस्सा चर्चा का विषय बना है कि:
“अगर बहुजन समाज एकजुट हो गया, तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री निषाद होगा।”
✅ निषाद (मछुआरा) समुदाय उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और अन्य राज्यों में एक बड़ी संख्या में मौजूद है।
✅ इस समुदाय को ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) में रखा गया है, लेकिन कई उपजातियां अनुसूचित जाति (SC) में भी आती हैं।
✅ अगर निषाद समुदाय समेत अन्य बहुजन समूह संगठित हो जाएं, तो उनकी राजनीतिक ताकत इतनी बढ़ सकती है कि वे मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री जैसे पदों तक पहुंच सकते हैं।
निष्कर्ष: बहुजन राजनीति की नई दिशा?
श्याम लाल निषाद का यह बयान भारत की जातिगत राजनीति पर एक नई बहस को जन्म देता है। उनके विचारों का मुख्य संदेश यह है कि यदि बहुजन समाज जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर एकजुट हो जाए, तो वे राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इस बहस के प्रमुख बिंदु:
📌 मनुवाद बनाम अंबेडकरवाद: जातिगत भेदभाव और सत्ता संरचना पर दो अलग-अलग दृष्टिकोण।
📌 जातिगत संगठनों की भूमिका: क्या ये संगठनों से सामाजिक एकता बढ़ेगी या जातिवाद मजबूत होगा?
📌 बहुजन समाज की सत्ता में भागीदारी: यदि दलित, पिछड़े और आदिवासी एकजुट हो जाएं, तो वे सत्ता का संतुलन बदल सकते हैं।
📌 निषाद नेतृत्व: क्या निषाद, कुर्मी, यादव, पासी, कोली, गोंड, चमार आदि जातियों की एकता से कोई बड़ा राजनीतिक परिवर्तन संभव है?
👉 इस बहस का मूल संदेश यही है कि अगर वंचित समुदाय जातिगत विभाजन से ऊपर उठकर संगठित होते हैं, तो वे अपने राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों को प्रभावी रूप से स्थापित कर सकते हैं।
आपका इस मुद्दे पर क्या विचार है? क्या बहुजन समाज वाकई जातिगत राजनीति से ऊपर उठ सकता है?
📌 रिपोर्ट: के एन साहनी, जालौन, उत्तर प्रदेश